Lekhika Ranchi

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प्रेमाश्रम--मुंशी प्रेमचंद

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मायाशंकर का कसूर नहीं, प्रेमशंकर को दोष नहीं, यह सब मेरे प्रारब्ध की कूटलीला है। मैं समझता था मैं स्वयं अपना विधाता हूँ। विद्वानों ने भी ऐसा कहा है; पर आज मालूम हुआ कि मैं इसके हाथों का खिलौना था। उसके इशारों पर नाचने वाली कठपुतली था। जैसे बिल्ली चूहे को खिलाती है, जैसे मछुआ मछली को खेलाता है उसी भाँति इसने मुझे अभी तक खेलाया। कभी पंजे से पकड़ लेता था, कभी छोड़ देता था।

जरा देर के लिए उसके पंजे से छूटकर मैं सोचता था, उस पर विजय पायी, पर आज खेल का अन्त हो गया, बिल्ली ने गर्दन दबा दी, मछुए ने बंसी खींच ली। मनुष्य कितना दीन, कितना परवश है? भावी कितनी प्रबल, कितनी कठोर!

जो तिमंजिला भवन मैंने एक युग में अविश्रान्त उद्योग से खड़ा किया, वह क्षणमात्र में इस भाँति भूमिस्थ हो गया, मानो उसका अस्तित्व न था, उसका चिन्ह तक नहीं दिखायी देता। क्या वह विशाल अट्टालिका भावी की केवल माया रचना थी?

हा! जीवन कितना निरर्थक सिद्ध हुआ। विषय-लिप्सा तूने मुझे कहीं का न रखा। मैं आँख तेज करके तेरे पीछे-पीछे चला और तूने मुझे इस घातक भँवर में डाल दिया।

मैं अब किसी को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहा। सम्पत्ति, मान, अधिकार किसी को शौक नहीं। इसके बिना भी आदमी सुखी रह सकता है, बल्कि सच पूछो तो सुख इनसे मुक्त रहने में ही है। शोक यह है कि मैं अल्पांश में भी इस यश का भागी नहीं बन सकता। लोग इसे मेरे विषय-प्रेम की यन्त्रणा समझेंगे। कहेंगे कि बेटे ने बाप का कैसा मान-मर्दन किया, कैसी फटकार बतायी। यह व्यंग्य, यह अपमान कौन सहेगा? हा! मुझे पहले से इस अन्त का ज्ञान हो जाता तो आज मैं पूज्य समझा जाता, त्यागी पुत्र का धर्मज्ञ पिता कहलाने का गौरव प्राप्त करता। प्रारब्ध ने कैसा गुप्ताघात किया! अब क्यों जिन्दा रहूँ? इसीलिए कि तू मेरी दुर्गित और उपहास पर खुश हो, मेरे प्राण-पीड़ा पर तालियाँ बजाये! नहीं, अभी इतना लज्जाहीन, इतना बेहया नहीं हूँ।

हा! विद्या! मैंने तेरे साथ कितना अत्याचार किया? तू सती थी, मैंने तुझे पैरों तले रौंदा। मेरी बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो गयी थी। देवी, इस पतित आत्मा पर दया कर!

इन्हीं दुःखमय भावों में डूबे हुए ज्ञानशंकर नदी के किनारे आ पहुँचे। घाटों पर इधर-उधर साँड़ बैठे हुए थे। नदी का मलिन मध्यम स्वर नीरवता को और भी नीरव बना रहा था।

ज्ञानशंकर ने नदी को कातर नेत्रों से देखा। उनका शरीर काँप उठा, वह रोने लगे। उनका दुःख नदी से कहीं अपार था।

जीवन की घटनाएँ सिनेमा चित्रों के सदृश उनके सामने मूर्तिमान हो गयीं। उनकी कुटिलताएँ आकाश के तारागण से भी उच्च्वल थीं। उनके मन में प्रश्न किया, क्या मरने के सिवा और कोई उपाय नहीं है?

नैराश्य ने कहा, नहीं कोई उपाय नहीं! वह घाट के एक पील पाये पर जाकर खड़े हो गये। दोनों हाथ तौले जैसे चिड़िया पर तौलती है, पर पैर न उठे।

मन ने कहा, तुम भी प्रेमाश्रम में क्यों नहीं चले जाते? ग्लानि ने जवाब दिया कौन मुँह लेकर जाऊँ, मरना तो नहीं चाहता, पर जीऊँ कैसे? हाय! मैं जबरन मारा जा रहा हूँ। यह सोचकर ज्ञानशंकर जोर से रो उठे। आँसू की झड़ी लग गयी। शोक और भी अथाह हो गया। चित्त की समस्त वृत्तियाँ इस अथाह शोक में निमग्न हो गयीं। धरती और आकाश, जल और थल सब इसी शोक-सागर में समा गये।

वह एक अचेत, शून्य दशा में उठे और गंगा में कूद पड़े। शीतल जल ने हृदय को शान्त कर दिया।

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